
मुझे नहीं था मालूम कोई वहाँ, पहली जगह बिना माँ और पिताजी के, और घर छोड़ कर नई जगह में जाना भी पहली बारी थी। आज मालूम भी नहीं उस दिन मेरी हालत क्या थी। दिन निकलते आहिस्ते सीखने लगी ख़ूब सारी सीख। विनय, अनुशासन का मूल्य भी, वही है मेरा स्कूल। हुआ शुरुवात स्कूल का।
लोगों से बात करना, प्यार बाँटना, खाना सब के साथ मिलकर खाना, सब को बाँटके खाना, स्नेहपूर्वक मिलझुल कर रहना बड़ों का आदर करना सीखी वहीं से। घर में माँ के बाद मेरी अध्यापिका से ही उत्तम विचारों का ज्ञान अनिरुद्ध हुआ। कुशल है मेरा स्कूल।
उन दिनों की बात यह बहुत अच्छी थी कि हर सुबह पूरी विध्यार्थि संख्या हाथ जोड़ कर भगवान की प्रार्थना पहले करके, कुछ श्लोक भगवद्गीता का पढ़ते थे। हर दिन उस दिन की मुख्य समाचार कोई एक सबके सामने पढ़ता था। उसके बाद एक क्रम में हम सब अपनी अपनी कक्षा में जाते थे। छोटी छोटी बातें बहुत मायने रखते है।
हमारे समय का स्कूलों की रीती बहुत स्वच्छ और सच्ची यी। स्कूल पहुँचते ही एक बड़ी घंटी बजाते थे, चपरासी।
नबी चाचा, चपरासी से ज़्यादा हम सबके चाचा वे रहे। भेदभाव नहीं सब को प्यार करते थे। ख़ूब सारी बातें बोलते थे अपने अनुभव की, उस वक़्त उन बातों की गंभीरता हम समझ नहीं सके लेकिन आज अपने जीवन निभाते समय कुछ उनकी बातें याद आती है। सीख, पढ़े लिखों से ही सीखना है, यह बात ग़लत है। अनुभव की सीख सब से ज़्यादा भारिता रखता है।
जब कक्षा में पाठ पढ़ाते रहते है अध्यापक, कभी अगर नबी चाचा आते है, कोई पावती लेकर हमें बहुत ख़ुश होता था क्योंकि छुट्टी की इश्तियाक़ जो लाते थे चाचा। घंटी बजते ही अगले कक्षा की अध्यापिका पहुँचने तक सब अपनी अपनी ख़ुशियाँ बाज़ू दोस्तों से बोला करते थे। बाहर जाने के बाद चाचा को शुक्रिया अदा करते थे, छुट्टी की इश्तियाद के लिए।
हर एक बातें करते बैठते है, ज़रा सी समय मिल जाये तो! यह तो अनुशासन की पद्धति नहीं है। फिर अध्यापिका लायी एक उपाय, अव्वल से पाँच तक जो अंक पाते है उनमें एक पूरी कक्षा की अग्रणी बनेंगे। सब की बातें चुप करायेंगे। था ना कुछ मज़ेदार। हाँ बहुत दिलचस्प होता था पढ़ाई अच्छा करके पहली पाँच अंक में एक आने की और अग्रणी बनने की। बहुत दुरुस्त स्पर्धा होती थी।
स्कूल की वार्षिक दिनोत्सव मनाते थे, स्वातंत्र दिवस, गणतंत्र दिवस और खेल-कूद दिवस। साल में दो बार सांस्कृतिक कार्यक्रम होते था। हम सब, नाच में, गाने में, वक्तृत्व और कहानी लेखन में भाग लेते थे। नाचने के लिए बहुत रियाज़ करते थे। पूरे वेशभूष के साथ हमारा कार्यक्रम होता था। अंत में जिनको इनाम मिला उनको आदरणीय मुख्य अतिथि के हाथों से पूरी स्कूल की करताल ध्वनी के साथ पुरस्कृत होता था।
पढ़ाई के साथ साथ अन्य बहुत विषयों को सीखना स्कूल की अहमियत है। सब को अपने अपने स्कूल के लिए प्यार और अभिमान रहना ही चाहिए और शायद रहता भी है। आज भी मेरे गुरुओं को याद करती हूँ। आज मेरी इस बुद्धी, आचार, व्यवहार और आज मेरा इस स्थान सब उनकी ही वजह से।
मेरे सब गुरुओं को मेरा सादर प्रणाम। मेरा स्कूल मुझे मंदिर समान है। जब स्कूल में थे तब बड़े हो जाने की ख्वाइश महाविद्यालय जाने की आतुरता, स्कूल कथम होने के बाद उन दिनों में फिर से जाने की इच्छा यह सिर्फ़ मेरी ही नहीं हर विद्यार्थी की सोच ज़रूर होता है।
Well written Roopa ...again schools days came infront... really missed those days .